Thursday, January 6, 2011

सीधा-सहल साफ़ है यह रास्ता

किस कदर सीधा-सहल साफ़ है यह रास्ता देखो
न किसी शाख़ का साया है, न दीवार की टेक
न किसी आँख कि बात, न किसी चेहरे का शोर
न कोई दाग़ जहां बैठ के सुस्ताये कोई
दूर तक कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं

चंद क़दमों के निशाँ, हाँ, कभी मिलते हैं कहीं
साथ चलते हैं जो कुछ दूर, फ़क़त चंद कदम
और फिर टूट के गिरते हैं ये कहते हुए
अपनी तन्हाई लिए आप चलो, तनहा, अकेले
साथ आये जो यहाँ, कोई नहीं, कोई नहीं--
किस कदर सीधा-सहल साफ़ है यह रास्ता देखो

-गुलज़ार

Wednesday, November 17, 2010

सिद्धार्थ की वापसी

सिद्धार्थ की वापसी
"कपिल अवस्तु" दूर नहीं है,
कपिल नगर के बाहर जंगल, कुछ छिदरा छिदरा लगता है!
क्या लोगों ने सूखने से पहले ही काट दिए हैं पेड़,
या शाख़ें ही जल्दी उतर जाती हैं अब इन पेड़ों की?

कपिल नगर से बाहर जाते उस कच्चे रास्ते से आख़िर कौन गया है,
रस्ता अब तक हांफ रहा है!
उस मिट्टी की तह के नीचे,
मेरे रथ के पहियों कि पुरजोर खरोचें,--
उन राहों को याद तो होंगी--

बुद्धं शरणम् गच्छामि का जाप मुसलसल जारी है,
"आनंदन" और "राघव" के होंठो पर
जो मेरे साथ चले आये हैं!
उनके होने से मन में कुछ साहस भी है--
'साहस' और 'डर' एक ही साँस के सुर हैं दोनों--
आरोही, अवरोही, जैसे चलते हैं--

और 'अना' ये मेरी कि मैं रहबर हूँ--
त्यागी भी हूँ--
राजपाट का त्याग किया है,
पत्नी और संतान के होते...
क्या ये भी एक 'अना' है मेरी?
या चेहरे पर जड़ा हुआ ये,
दो आँखों का एक तराजू--
क्या खोया, क्या पाया, तौलता रहता है--

शहर की सीमा पर आते ही, साँस के लय में फर्क आया है--
पिंजरे में एक बेचैनी ने पर फडके हैं!
जाते वक़्त ये पगडण्डी तो,
बाहर कि जानिब उठ उठ कर देखा करती थी!
लौटते वक़्त ये पाँव पकड़ के,
घर कि जानिब क्यूँ मुडती है?

मैं सिद्धार्थ था,
जब इस बरगद के नीचे चोला बदला था,
बारह साल में कितना फैल गया है घेरा इस बरगद का,
कद्द भी अब उंचा लगता है,--
"राहुल" का कद्द क्या मेरी नाभि तक होगा?
मुझ पर है तो कान भी उसके लम्बे होंगे--
माँ ने छिदवाए हों शायद--
रंग और आँखें, लगता था माँ से पायी हैं
राज कुँवर है, घोडा दौडाता होगा अब,
'यश' क्या रथ पर जाने देती होगी उसको?

बुद्धं शरणम् गच्छामि, और बुद्धं शरणम् गच्छामि--
ये जाप मुसलसल सुनते सुनते,
अब लगता है जैसे मंतर नहीं, चेतावनी है ये--
"मुक्ति राह" से बाहर आना,--
अब उतना ही मुश्किल है, जितना संसार से बाहर जाना मुश्किल था!!

क्यूँ लौटा हूँ-----?
क्या था जो मैं छोड़ गया था---
कौन सा छाज बिखेर गया था,
और बटोरने आया हूँ मैं--
उठते उठते शायद मेरी झोली से,
सम्बन्ध भरा इक थाल गिरा था--
गूँज हुई थी, लेकिन मैं ही वो आवाज़ फलाँग आया था---

हर सम्बन्ध बंधा होता है,
दोनों सिरों से,
एक सिरा तो खोल गया था,
दूसरा खुलवाना बाक़ी था--
शायद उस मन कि गिरह को खोलने लौट के आया हूँ मैं!

आगे पीछे चलते मेरे चेलों कि आवाजें कहती रहती हैं,
महसूर हो तुम, तुम कैदी हो, उस "ज्ञान मंत्र" के,
जो तुमने खुद ही प्राप्त किया है--
बुद्धं शरणम् गच्छामि-- और बुद्धं शरणम् गच्छामि!!

-गुलज़ार

Tuesday, October 12, 2010

खुश आमदेद (Welcome)

खुश आमदेद

और अचानक --
तेज हवा के झोंके ने कमरे में आ कर हलचल कर दी --
परदे ने लहरा के मेज़ पे रखी ढेर सी कांच की चीज़ें उलटी कर दीं--
फड फड करके एक किताब ने जल्दी से मुंह ढांप लिया --
एक दवात ने गोता खाके सामने रखे जितने भी कोरे कागज़ थे सबको रंग डाला --
दीवारों पे लटकी तस्वीरों ने भी हैरत से गर्दन तिरछी कर के देखा तुमको !
फिर से आना ऐसे ही तुम
और भर जाना कमरे में.!

- गुलज़ार
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और अचानक --
तेज हवा के झोंके ने कमरे में आ कर हलचल कर दी --
परदे ने लहरा के मेज़ पे रखी ढेर सी कांच की चीज़ें उलटी कर दीं--

'kaanch ki cheezein' are beautiful but delicate possessions. Easily breakable and loose their splendor if the broken pieces are attempted to be put together. The gush of air, that entered the room unalarmed, just disheveled the decorated glassware on the table.

फड फड करके एक किताब ने जल्दी से मुंह ढांप लिया --
एक दवात ने गोता खाके सामने रखे जितने भी कोरे कागज़ थे सबको रंग डाला --

An inkpot just poured itself on fresh papers. It would have soaked the blank as well as 'documented' papers alike. It wiped off what was already written, it also wiped off the possibility of anything to be written. It coloured every sheet in same hue..

दीवारों पे लटकी तस्वीरों ने भी हैरत से गर्दन तिरछी कर के देखा तुमको !

'deewaron pe latki tasveerein' of fond people/memories. Only a handful of memories or people find places on the walls, they have to be dear.! The figures that were sitting pretty on walls for ages, were made 'tirchi'. They grimaced at the new entry who dared to push them out of their long occupied smug, conceited positions. I speculate it would have thrashed some of them too.. though not explicitly captured in as many words.
The unwelcomed breeze deranged and disturbed the room completely.!

After that momentary rush of air is gone, 'kaanch ki cheezein' would be restored on the table, though some of them broken beyond repair.. some which were dearer than others, would be fondly glued together and would loose their symmetry in the process; the papers blotted with ink would be discarded.. the papers with same tint.. 'deewaron pe latki tasveerein' will be restored to their original positions from the 'tirchi' position, their complacence restored.

फिर से आना ऐसे ही तुम
और भर जाना कमरे में.!

When you came like a gush of air in this life, you unsettled everything, making it all go topsy turvy, wiping off the writings, and leaving no writings either, uprooting the memories from past, and even crushing a few precious delicate things in the process, crushing beyond repair.
Despite that you are welcome to just come by once again in the same fashion and fill up this life once again, though momentarily..